आह !!!
प्रिये !!!
दृगों में लिपटे
तुम नन्हे फूल से
कहा रहे भटके ????
तुम मुझे भूल के ???
अब भुला ही देना ....
नहीं बुलाना मुझको
मैं अब न लौटूंगा ????
पर आज क्यों मैं ..!!!!
सशंकित हो उठा हूँ
क्या तुम खो जाओगे ???
असहाय होकर
मुझे क्या
उस पार ...
जाता हुआ...
देख पाओगे ???
या रुदन में
आसुंओं के बीच
दृग में मुझे पाओगे .. ????
शांत रहना तुम ..
किंचित ना रोना
धरा पर झर रहे पुष्पों से
यूँ ब्यथित ना होना ....!!!
काट लेना इस विपद को
मित्र तुम धीर से ...
मैं चला उस पार ....
शरद की पीर से
तुम करना प्यार ..
उस शेष से
जो कल फिर ...
क्षितिज के ….
उस पार से
बसंत बन मुस्काएगा ....
अंक में भर कर तुम्हे ...
मेरे स्वरों में
विरह गीत सुनाएगा... ..
श्रीप्रकाश डिमरी
जोशीमठ १६-३-२०११