Sunday, March 8, 2015

..… .नारी ...

जब भी चाहा
असत से विरक्त होना

विलुप्तियों के अन्धकार में
छुप जाना
तुम मुस्काती
गुदगुदाती हो मुझे
और मैं हंस

पड़ता हूँ खिलखिलाते
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जब भी चाहा
उदासियों का बादल बन

उड़ जाना
तुन्हारे आँचल की उष्णता
नेह की बूँद बना देती है मुझे
और में
बरस पड़ता हूँ फूट फूट कर
……………………………………………………..

जब भी चाहा
दुखों की बर्फ बन कर
किसी पोखर में जम जाना
तुम सूर्य रश्मि बन जाती हो
और मैं
नीर क्षीर बन जाता हूँ
……………………………………………………………..

जब भी चाहा थक कर
शाख से पीत पल्लव बन
गिरकर माटी में मिल जाना |
तुम हरित श्रृंगार बना देती हो मुझे
और मैं
वसंत बन
धरा पर सज जाता हूँ
………………………………………………………

प्रिये

मै तो एक निरा ठूंठ
तुम महा सिन्धु
सृष्टी चक्र की पावस
ममतामयी नारी .......
असंख्यों स्मृतियाँ हैं
मेरी और तुम्हारी ........


….. श्रीप्रकाश डिमरी १ मार्च २०१५

Sunday, February 1, 2015

गुमसुम चांदनी

यकीं  है
ये  आगाज है 
अंजाम  नहीं
कारवाँ
नहीं थमेगा अभी
कई मंजिलें
और भी हैं
राहे गुजर में
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जिंदगी के आईने में
कर लेंगे हिसाब किताब
पलकों पे ठिटके   
उन आंसुओं का
 ................... 
यकीं ही नहीं होता  
कि पत्थरों के इस  शहर में
मसीहा  कोई
तुमसा भी मिले  
......................................
अपने रंजो गम को
तारीख बनाने वालों
काश कल रात को
मर  गए  चाँद के कफ़न को
तुमने  देखा होता
........................................
गुजारिश  है तुझसे
खामोश हो जा
ऐ चांदनी…….
यहाँ  की
दस्तूरे  जिंदगी  में
सिसकना  मना  है ......

श्रीप्रकाश डिमरी १७ सितम्बर २०१४