Monday, July 18, 2011

प्रेम.....


प्रेम !!!..............


रात गए ...
तन्हाईयों में अक्सर ..
एक चहचाहट सी सुनकर
उठ जाता हूँ विस्मित होकर ..
उस घटाटोप अंधकार में भी
तुम्हारी प्रेम पाती मुस्कुराती है ..
और मेरे ह्रदय के नीड़ से उडकर
तुम्हारी भेजी दो नन्ही चिडियाँ ...
मन आंगन के अंधेरों में
आशाओं के असंख्य ...
मधुर गीत सुनाती है ..
तब .....
अपने तमाम नेह को
कागज में उडेलने के
अथक प्रयास में ....
मेरी आँखों में युगों से कैद
एक हठीले ....
निश्तब्ध महासागर का मौन
एकाएक टूट जाता है ..
और निर्झर बहते अश्रुओं में
तुम्हारा ही " प्रतिबिम्ब" मुस्कुराता है ...
....................................
( परम स्नेही मित्र प्रतिबिम्ब बर्थवाल जी के स्नेह को समर्पित )
स्वरचित..... श्रीप्रकाश डिमरी २३ मई २०१०