इस घर के हर कोने में
बसी हैं यादें कितनी
इसलिए यहाँ जाना
और जाके भूल पाना
बेहद मुश्किल है ......
माँ के जाने के बाद
पिता ने मान ली है हार
हर वक्त यहाँ खोयी खोयी सी
तन्हाई पसरी है ......
ना जाने कब का सो चूका है
बिन बाती का दीप
जहाँ माँ मुस्कुराती थी
वो तुलसी उदास सी खड़ी है.....
सूखी मरुस्थल सी
रंगोली सिसकती है
गाहे बाहे कहीं आवाज सी उभरती है
शाम हो गयी अब घर आजा लाल
बचपन की भूली बिसरी याद बिसूरती है ...........
श्रीप्रकाश डिमरी जोशीमठ उत्तराखंड
नवम्बर २६ २०१२