.अपने आस पास मानवीय संवेदनाओं ..आस्थाओं के सरल ओर सहज रूप को ..अविश्वाश ओर दंभ से परास्त होते देखना कितना पीड़ा दायक होता है ... हमारी संवेदनाये ओर स्नेह इस भौतिक युग में सभ्यता के तथाकथित विकास में .. कितना बिखर चुके हैं ....मन भर आता है..ओर अनुभूतियाँ स्पन्दित होने लगती हैं.. .. अवाक रह जाता हूँ मैं....फिर भी विश्वास है .. संसार में मानवीय संवेदनाएं एवं पारस्परिक प्रेम की भावना के जीवंत होने का....
Thursday, April 22, 2010
माँ... ओ !! मेरी माँ ..
मेरे बचपन की साथी
अंगुली पकड़ चलाती
वाणी मुझे सिखाती ...
प्राण दीप की बाती..
सुख दुःख की साथी
माँ !!! कहाँ हो तुम...???
मैं मुस्कुराता ..
बसंत सी खिल जाती
मैं रोता ..
सर्द स्याह...
रात सी हो जाती ...
तेरा आँचल ..
ममतामयी छाया ...
ऐसी तेरी मोहिनी माया ..
एक पल का बिछोह ...
तुम से न सह पाया ...
तुझसे ही तो.....
तो बालपन पाया
नहीं तू तो ..
मैं बुड़ाया...
बनी डूबता सूरज ....
मेरी काया ..
तुझे पुकारूँ ..
माँ ...ओ !!!.. मेरी माँ..
मेरे लिए...
माँ ... सिर्फ संबोधन ...
क्या प्रत्युत्तर नहीं ....??
अगर है ऐसा तो ..
क्यों सपनो में आती हो ..???
मेरे माथे को सहलाकर
फुर्र से उड़ जाती हो ...
तुम कहती थी रोना नहीं ..
इसलिए नम आँखों में..
कैद करली हैं ..
अनगिनत हिचकियाँ ...
काश !!! कि फिर ये हो पाता ..
बच्चा बनकर तुझसे लिपट जाता ..
लुक्का छिप्पी
कहते तेरे
आँचल में छिप जाता ....
मुझे कोई तो समझाता ...
मेरे मन रोना नहीं ...
ये तो आत्मा का अहसास है ..
माँ... सदा मेरे पास है ....
स्वरचित ...श्रीप्रकाश डिमरी अप्रैल ५,२०१०