जब भी चाहा
असत से विरक्त होना
विलुप्तियों के अन्धकार में
छुप जाना
तुम मुस्काती
गुदगुदाती हो मुझे
और मैं हंस
पड़ता हूँ खिलखिलाते
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जब भी चाहा
उदासियों का बादल बन
उड़ जाना
तुन्हारे आँचल की उष्णता
नेह की बूँद बना देती है मुझे
और में
बरस पड़ता हूँ फूट फूट कर
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जब भी चाहा
दुखों की बर्फ बन कर
किसी पोखर में जम जाना
तुम सूर्य रश्मि बन जाती हो
और मैं
नीर क्षीर बन जाता हूँ
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जब भी चाहा थक कर
शाख से पीत पल्लव बन
गिरकर माटी में मिल जाना |
तुम हरित श्रृंगार बना देती हो मुझे
और मैं
वसंत बन धरा पर सज जाता हूँ
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प्रिये
मै तो एक निरा ठूंठ
तुम महा सिन्धु
सृष्टी चक्र की पावस
ममतामयी नारी .......
असंख्यों स्मृतियाँ हैं
मेरी और तुम्हारी ........
….. श्रीप्रकाश डिमरी १ मार्च २०१५